कुकडेश्वर- नगर एवं आस-पास के गांव में शुरु हुए संजा पर्व जो कि अश्विन सुदी एकम से घर की दीवारों पर मांडे गये मांडने कही गोबर से तो कहीं पन्नी पर बनी संजा लगा कर शाम होते ही गुंजने लगते गीत हर वर्ष श्राद्ध पक्ष के सोलह दिनों तक मालवांचल में संझा के माण्डनों का अंकन होता है। कुंवारी कन्याएं अच्छे वर की कामना में संझा के माण्डने घर के आंगन की दीवार पर माण्डती हैं। और उसे प्रत्येक दिन, क्रमवार सजाती हैं। गोबर को दीवार पर लीपकर उसके ऊपर अंकन किए जाते हैं। लेकिन आधुनिक युग के हिसाब से अब अधिकांश जगह पर कागज व पन्नी पर बनी हुई लगा कर नित्य पुजन कर गीत गाए जा रहें हैं। मान्यता है कि संझा केवल 16 वर्ष ही जीवित रही। इस दौरान उसने जहां अपना बचपन मायके में हंसी-ठिठोली के साथ बड़े आराम से बिताया वहीं ससुराल में उसे कष्ट रहा। कष्ट को सहन न कर पाने के चलते वह मृत्यु को प्राप्त हुई। उसी की याद में कालांतर में संझा के माण्डने 16 दिनों तक श्राद्ध पक्ष में बनाते हैं। बुजुर्गो के बताये अनुसार यह एक परंपरा है,जिसके माध्यम से कुंवारी कन्या 16 दिन में यह जान जाती है कि पीहर और ससुराल में क्या अंतर होता है। विवाह के मायने क्या होते हैं। विवाह बाद ससुराल में किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है। उस समय गंभीर, धैर्यवान रहकर कैसे समय को टाला जा सकता है।संझा के गीतों के माध्यम से बताया जाता है कि वह अपने भाईयों से नहीं मिलने का दु:ख चांद, सूरज को भाई बनाकर, उनसे बात करके कम करती है। वहीं पनिहारिनों के साथ बतियाकर अपनी पीड़ा व्यक्त करती है। आज भी भारतीय परंपरा के सभी पर्व का अपना एक महत्व है और जीवन जीने की कला।29 सितंबर से गली गली में गुंजने लगे संजा माता के गीत नन्नी बालिकाओं की तुतली आवज में गीत बहुत ही सुन्दर लगते हैं।