logo

मालवांचल का लोक पर्व ' संझा'आधुनिकता के दौर में लुप्त हो रहा

रामपुरा- आधुनिकता लोक परंपराओं को डिजिटल इंडिया के नए परिवेश में पुरानी कई परंपराएं को लील गई एवं लोक त्यौहार लुप्त हो गए है| भौतिक युग की आपाधापी चरम की ओर है वहीं ग्रामीण वातावरण भी नई टेक्नोलॉजी को अपनाने को आतुर हो गया है| मोबाइल ने तो कई खेल( आउटडोर एवं इंडोर) सभी को पछाड़ दिया व परंपराएं 'क्षतिग्रस्त 'हो चली है| मालवा अंचल में भी कोई दो/ तीन दशक पूर्व एक ऐसी ही परंपरा प्रचलित थी जिसका नाम है 'संझा' गणपति प्रतिमा विसर्जन अर्थात् गणेश उत्सव के पश्चात एवं मां दुर्गा की भक्ति का पर्व नवरात्रि के मध्य यह पर्व संझा, पितरों के पर्व श्राद्ध पक्ष में मनाया जाता है| ग्रामीण क्षेत्र में बालिकाओं द्वारा घर एवं मकानों की दीवारों पर गोबर से मांडने ( भित्ति चित्र) बनाए जाते हैं| तथा उसे फूलों से एवं रंगीन पन्नियों से सजाया जाता है एवं उसके समक्ष मालवी भाषा गीत गाए जाते हैं, गली मोहल्लों में एक से अधिक स्थानों पर यह बनाई जाती है| तो बालिकाएं प्रत्येक 'संझा 'वाले घर जाकर अलग-अलग लोक गीत गाती है तथा प्रसाद वितरण भी किया जाता है| यह प्रसाद विभिन्न तरह के फल एवं मालवी मिष्ठान के रूप में होते हैं इसमें सर्वाधिक प्रचलित है गुड एवं गेहूं से बनी 'धाणी'। संझा प्रतिदिन नए स्वरूप में बनाई जाती है पशुधन की कमी एवं मकानों के पक्के निर्माण के बाद यह संझा रंगीन पानी की दीवारों पर कैलेंडर की तरह टांगने वाली भी बाजारों में आ गई है| यह परंपरा अब अंतिम दौर की ओर है आज आधुनिकता की दौड़ में हर व्यक्ति शामिल होने के लिए प्रयत्नशील है ऐसे में इस लोक परंपरा को सहेजने की आवश्यकता है|

Top