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शिक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण है सभ्यता, संस्कार--प पू श्री अभिषेक मुनि जी मा सा

कुकडेश्वर- आज हम आकृति देख प्रसन्न होते हैं, आकृति में मनुष्य शरीर की सुंदरता को निखारने सजाने में लगा रहता है, महिला मेकअप में विश्वास करती हैं।लेकिन महत्वपूर्ण है प्रकृति आकृति नहीं
अगर प्राकृती रुपी संस्कार नहीं तो कल्याण संभव नहीं आकृति जितना मायने नहीं रखती उतना मायने रखती है प्रकृति के बने रहना मानव के आचार विचार चरित्र सुंदर होना चाहिए आज हम सुख सुविधा के साथ शिक्षा पर जोर दे रहे हैं। हमने बच्चों को शिक्षा तो दे दी लेकिन संस्कार नहीं दिये सभ्यता नहीं दी तो देखने में आता है की सभ्यता के अभाव में संस्कार के अभाव में बच्चे अपनी मर्यादा छोड़ते जा रहे हैं अशांति हर घर में चल रही है उसके  पीछे मुख्य कारण है सभ्यता और संस्कार का अभाव और इस कारण से घर में नेगेटिविटी बनी हुई  रहती घरों में मानसिक तनाव रोग व संतोष के साथ उलझने पैदा होती हैं। उलझन में मानव मात्र दुखी रहता है सुखी बनना है तो सबसे पहले हमें संस्कारवार बनना होगा धर्म को जिनवाणी को श्रवण कर आत्मसात करें उसके मार्ग को अपनाकर चलना होगा।उक्त विचार ज्ञान गच्छ के मधुर व्याख्यानी संत श्री अभिषेक मुनि जी मा सा ने जैन धर्मशाला कुकड़ेश्वर में निमित्त प्रवचन माला के दौरान शिक्षा संस्कार और सभ्यता के ऊपर प्रवचन देते हुए फरमाया कि आज हम धर्म स्थान जाये घर, दुकान पर हमारे जुते चप्पल बिखरे पड़े रहते हैं बच्चें जैसे ही घरों में घुसते हैं अपना सारा समान बिखेरते है, जिस घर में सामान अस्त-व्यस्त रहता है वहां अंशाति, दरिद्रता बनी रहती है।हम देखते हैं हर युवा महिला पुरुष को शारीरिक तकलीफ ब्लड प्रेशर कमर दर्द सिर दर्द बना रहता है जिसका मुख्य कारण टीवी मोबाइल एवं देर तक सोना व लेट उठना उसी के साथ अव्यवस्थित खानपान हम धर्म के मर्म को समझें हमें जैन कुल मिला है और जैन कुल मिलने के बाद भी हमें संस्कार नहीं हुआ तो मन अशांत रहेगा समस्या अनेक है लेकिन समस्या का समाधान आत्मचिंतन है। शब्दों का प्रभाव शरीर पर पड़ता है शब्द से शरीर में जहर भी खुलता है और शब्दों से शरीर का जहर भी उतरता है जिनवाणी को आत्मसात नहीं करते हैं व्यक्ति की पहचान वाणी से होती हैं वाणी में मधुरता चेहरे पर मुस्कुराहट नहीं तो मनुष्य की सभ्यता संस्कृति व उसके परिवार का माहौल पता लग जाता है भगवान महावीर अपनी वाणीन हमें बता गए उस वाणी को आप तक संत,सतिया पहुंचा रहे हैं। लेकिन आपने उसे कितना आत्मसात किया यह चिंतन का विषय है चिंतन हमें स्वयं करना है एवं इस मानव जीवन को सफल बनाना है। उक्त अवसर पर प पू श्री संदीप मुनि जी मा सा ने बताया कि जिनवाणी को जीवन में उतारने से ही आत्मा का कल्याण होता है लेकिन आज हमें धर्म की सही समझ नहीं होने से सिर्फ हम दुखी बन कर संसार के  सुख को ही सुख मान रहे लेकिन सच्चा सुख जिसको मिलता है जिसने जिनवाणी को श्रवण कर आत्मसात कर लिया हो हमारे कोई मित्र और शत्रु नहीं है मित्रता करो सत्कार्य से सम्यक, दर्शन, ज्ञान,चरित्र  से मित्रता करो और शत्रुता करो राग, द्वेष, कषाय, क्रोध और अधर्म से आपने बताया कि सुखी बनना और सुखी रहना दोनों में अंतर है सुखी तो हम सांसारिक सुख साधनों से बन रहे हैं,लेकिन उसमें सुख नहीं रहे हैं सुखी रहने के लिए  अंतर आत्मा का कल्याण करने के लिए त्याग तप और धर्म की आवश्यकता होगी और सुखी वही बन सकता है जिसने संतोष प्राप्त कर लिया आप के पावन सानिध्य में नित्य प्रातः प्रार्थना , प्रवचन ,दोपहर में ज्ञान चर्चा रात्रि को प्रवचन हो रहें हैं।

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