मनासा। दुःख प्रभु का प्रसाद है प्रभु के जितने परम् भक्त हुए उन्हें दुख की आग में तपना पड़ा जो तपा भी कुंदन बना है। द्वारकाधीश महाभारत समाप्त होने पर जब द्वारका जाने लगे तो बुआ कुंती ने कहा तुम्हे जाने से पहले क्या दू। कुंती ने भगवान से दुख मांगा और कहा हम पर जब लाक्षागृह का दुख आया चीरहरण का दुख आया तब आप दौड़े चले आए दुख में ही ईश्वर का स्मरण रहता हे। इस विचार को जीवन्त किया भजन में दुखो से चोट खाई न होती, प्रभु तुम्हारी याद आई न होती। दुःख आदमी को इंसान बनाते हैं। पतन के मार्ग पर जाने नहीं देते। उपरोक्त आशय के विचार द्वारकापुरी धर्मशाला में आयोजित भागवत कथा के कुंती के प्रसंग पर प. पूज्य आचार्य देवेन्द्र जी शास्त्री ने कथा के दूसरे दिवस पर व्यक्त किए।आपने कथा मेंआगे कहा मनुष्य तृष्णा का दास है इसलिए उसके जीवन में भटकाव है तृष्णा कभी बूढ़ी नहीं होती जैसे जैसे आदमी बूढ़ा होता हे तृष्णा जवान होती जाती है पहले आना चलता था चाह आने से पैसों में आती रही चाह पैसो से रुपयों से आती गई। वह रूपयो से मकान चुनाती रही चाह मकान से गाड़ी बुलाती रहीं चाह गाड़ी से होटल में जाती रही, चाह होटल में बोतल खुलाती रही। यही चाह प्रभु में हो तो फिर उसे कुछ नहीं चाहिए। चाह गई चिंता मिटी मनवा बे परवाह जिसे कुछ न चाहिए ,वही है शाहो का शाह। इसलिए प्रभु को पाना है तो तृष्णा का त्याग करना होगा। कथा का श्रवण प्रभु से लो लगाने का परम मार्ग है। कथा कभी बूढ़ी नहीं होती पुरानी नहीं होती। कथा वह है जिसके श्रवण मात्र से चिन्तन करने से प्रभु में प्रीति बढ़ जाती है दूसरे दिन की कथा का विराम सीताराम सीताराम कहिए जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए की बेमिसाल गूंज के साथ हुआ।